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चोल साम्राज्य। (Chola Empire)

चोल साम्राज्य दक्षिण भारत में छठी और आठवीं सदियों के बीच बहुत-से शक्तिशाली साम्राज्यों का उदय हुआ। उनमें सबसे महत्त्वपूर्ण थे पल्लव और पांड्य जो आधुनिक तमिलनाडु पर राज्य करते थे, आधुनिक केरल में चेर थे और चालुक्य महाराष्ट्र या दकन पर राज्य करते थे। चालुक्य राजा पुलकेशिन द्वितीय ने ही हर्ष को हराया था और उसे दकन की ओर अपने राज्य का प्रसार करने नहीं दिया था। इनमें पल्लव और पांड्य जैसे कुछ राज्यों के पास शक्तिशाली नौसेना थी उन्होंने दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों और चीन के साथ आर्थिक, धार्मिक और सांस्कृतिक संबंधों को मजबूत बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। अपनी शक्तिशाली नौसेना के बल पर उन्होंने श्रीलंका पर आक्रमण किया और उसके कुछ भागों पर कुछ समय तक शासन भी किया। चोल साम्राज्य का उदय नवीं सदी में हुआ। उसने प्रायद्वीप के एक बड़े भाग को अपने अधीन कर लिया। चोलों ने एक शक्तिशाली नौसेना का विकास किया जिसके बल पर उन्होंने श्रीलंका और मालदीव के द्वीपों को जीता। दक्षिण-पूर्व एशिया पर उनका प्रभाव आज तक महसूस किया जाता है। चोल साम्राज्य को दक्षिण भारत के इतिहास का चरम बिंदु कहा जा सकता है। चोल साम

वैदिक काल या वैदिक सभ्‍यता (Vedic age)

  वैदिक काल या वैदिक सभ्‍यता (Vedic age) हड़प्पा के लोग पूरी तरह से व्यवस्थित नगरों में रहते थे और उनकी व्यापारिक और शिल्पकारी संबंधी कार्यविधियाँ बहुत व्यवस्थित थीं, उनकी एक लिपि भी थी, परन्तु अभी तक हम उसे पढ़ नहीं पाए हैं। परन्तु 1900 ई. पू. के आसपास इन नगरों का पतन शुरू हो गया था। इसके पश्चात अनेक ग्रामीण बस्तियों का उदय हुआ। इन ग्रामीण बस्तियों में अनेक तत्त्व थे, जो हड़प्पा कालीन सभ्यता की निरंतरता दर्शाते थे। इसी कालावधि के दौरान हड़प्पा के क्षेत्रों के आसपास की बाहरी सीमाओं में आर्य या इंडो आर्य नाम के नए लोगों के भारत में प्रवेश के पुरातात्त्विक साक्ष्य मिलते हैं। हम उन परिस्थितियों की जानकारी प्राप्त करेंगे, जिनके कारण इन नए लोगों ने प्रवेश किया और यह जानने का भी प्रयास करेंगे कि वैदिक साहित्य में इनकी सभ्यता के संबंध में इनकी किन-किन मुख्य विशेषताओं का उल्लेख मिलता है। वैदिक साहित्य वेद क्या है? 'वेद' विद् धातु से लिया गया है, जिसका अर्थ है 'जानना' | 'वेद' शब्द का अर्थ है वेद साहित्य के रूप में जाने वाले वैदिक साहित्य में निहित पवित्र ज्ञान । वैदिक स

वर्धन वंश | vardhan vansh

वर्धन वंश गुप्त साम्राज्य के पतन के पश्चात् उत्तरी भारत में एक बार फिर राजनीतिक विकेन्द्रीकरण की प्रवृत्ति प्रबल हो गयी. सम्पूर्ण उत्तरी भारत में सार्वभौम शक्ति समाप्त हो गयी. सार्वभौम शक्ति के अभाव में महत्वाकांक्षी लोगों ने विभिन्न छोटे-छोटे राजवंशों की स्थापना करना आरम्भ कर दिया. इसी समय वर्धन वंश के पुष्यभूति ने हूण एवं मगध राज्य के मध्य एक नवीन राज्य थानेश्वर की स्थापना की. थानेश्वर राज्य के शासकों का वर्णन मधुवन प्रशस्ति से प्राप्त होता है. राजकीय मुहरें और अभिलेख से ज्ञात होता है कि महाराज नरवर्धन, महाराज राज्यवर्धन, महाराज आदित्य वर्धन और परमभट्टारक महाराजाधिराज प्रभाकर वर्धन इस वंश के प्रमुख शासक हुए. बाण ने इस वंश के संस्थापक पुष्य भूति के उत्तराधिकारियों का उल्लेख न करके सीधे प्रभाकर वर्धन का उल्लेख किया है. बाण ने ऐसा सम्भवतः इसलिए किया है, क्योंकि प्रभाकर वर्धन, वर्धन वंश का प्रथम शक्तिशाली शासक था. हर्षवर्धन के अभिलेखों में भी उसके चार पूर्वजोंनरवर्धन, राज्यवर्धन, आदित्यवर्धन तथा प्रभाकर वर्धन का उल्लेख मिलता है. प्रभाकर-वर्धन के पश्चात् हर्षवर्धन इस वंश का सर्वाधिक शक्ति