चोल साम्राज्य
दक्षिण भारत में छठी और आठवीं सदियों के बीच बहुत-से शक्तिशाली साम्राज्यों का उदय हुआ। उनमें सबसे महत्त्वपूर्ण थे पल्लव और पांड्य जो आधुनिक तमिलनाडु पर राज्य करते थे, आधुनिक केरल में चेर थे और चालुक्य महाराष्ट्र या दकन पर राज्य करते थे। चालुक्य राजा पुलकेशिन द्वितीय ने ही हर्ष को हराया था और उसे दकन की ओर अपने राज्य का प्रसार करने नहीं दिया था। इनमें पल्लव और पांड्य जैसे कुछ राज्यों के पास शक्तिशाली नौसेना थी उन्होंने दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों और चीन के साथ आर्थिक, धार्मिक और सांस्कृतिक संबंधों को मजबूत बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। अपनी शक्तिशाली नौसेना के बल पर उन्होंने श्रीलंका पर आक्रमण किया और उसके कुछ भागों पर कुछ समय तक शासन भी किया।
चोल साम्राज्य का उदय नवीं सदी में हुआ। उसने प्रायद्वीप के एक बड़े भाग को अपने अधीन कर लिया। चोलों ने एक शक्तिशाली नौसेना का विकास किया जिसके बल पर उन्होंने श्रीलंका और मालदीव के द्वीपों को जीता। दक्षिण-पूर्व एशिया पर उनका प्रभाव आज तक महसूस किया जाता है। चोल साम्राज्य को दक्षिण भारत के इतिहास का चरम बिंदु कहा जा सकता है।
चोल साम्राज्य का उदय
चोल साम्राज्य का संस्थापक विजयालय था जो पहले पल्लवों का सामंत रह चुका था। उसने 850 में तंजावुर पर कब्जा किया। नवीं सदी के अंत तक चोल कांची के पल्लवों को भी हरा चुके थे और पांड्यों को भी कमजोर कर चुके थे। इस तरह दक्षिण तमिल भूमि (टोंडमंडल) पर उनका अधिकार हो गया। मगर राष्ट्रकूटों से अपना बचाव करने के लिए चोलों को लोहे के चने चबाने पड़े। जैसा कि कृष्ण तृतीय ने चोल राजा को हराकर चोल साम्राज्य के उत्तरी भाग को छीन लिया था। चोलों के लिए यह एक भारी पराजय थी, पर वे जल्द ही संभल गए, विशेषकर 965 में कृष्ण तृतीय की मृत्यु और राष्ट्रकूट साम्राज्य के पतन के बाद। उसके बाद दो सदियों तक दक्षिण भारत में चोलों का वर्चस्व रहा।
राजराज और राजेंद्र प्रथम का युग
चोल राजाओं में सबसे महान राजराज (985-1014) और उसका पुत्र राजेंद्र प्रथम (1014-1044) थे। राजराज ने कावेरी के कछार (डेल्टा) समेत पूरे तमिल क्षेत्र को एक शक्तिशाली राज्य में एकजुट किया और उसके प्रभाव को उत्तर में स्थित कलिंग या उड़ीसा तक फैलाया। उसने विदेश व्यापार के लिए और कुछ पड़ोसी क्षेत्रों पर वर्चस्व के लिए नौसेना के महत्त्व को समझा, त्रिवेंद्रम में चेर नौसेना को हराया और क्वीलोन पर आक्रमण किया। फिर उसने मदुरै को जीता और पांड्य राजा को बंदी बनाया। उसने श्रीलंका पर भी आक्रमण किया और उसके उत्तरी भाग को अपने साम्राज्य में मिला लिया। ये कृत्य उसकी इस इच्छा से प्रेरित थे कि दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों से होनेवाले व्यापार को वह अपने अधीन लाए।
कोरोमंडल तट मालाबार और दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के साथ व्यापार के केंद्र थे। मालदीव की विजय उसके नौसेनिक कारनामों में से एक थी। राजराज ने कर्नाटक के गंग साम्राज्य के पश्चिमोत्तर भागों पर भी अधिकार किया और वेंगी को हराया। राजेंद्र प्रथम अपने पिता के जीवनकाल में ही युवराज बना दिया गया था तथा सिंहासन पर बैठने से पहले ही प्रशासन और युद्ध का काफी अनुभव प्राप्त कर चुका था। पांड्य और चेर क्षेत्रों को पूरी तरह रौंदकर और उनको अपने साम्राज्य में मिलाकर राजेंद्र प्रथम ने राजराज की विस्तारवादी नीति को आगे बढ़ाया। श्रीलंका की विजय का कार्य भी पूरा हुआ तथा श्रीलंका के राजा और रानी के मुकुट और राज चिह्न पर कब्जा कर लिया गया। अगले 50 वर्षों तक श्रीलंका चोलों के नियंत्रण से मुक्त न हो सका।
राजराज और राजेंद्र प्रथम ने अपनी विजय की पहचान के रूप में विभिन्न स्थानों पर शिव और विष्णु के अनेक मंदिर बनवाए। इनमें सबसे प्रसिद्ध तंजावुर का राजराजेश्वर मंदिर था जो 1010 में पूरा हुआ। चोल राजाओं ने इन मंदिरों की दीवारों पर अभिलेख लिखवाने की प्रथा चलाई जिनमें उनकी विजय के ऐतिहासिक वृत्तांत दिए जाते थे। यही कारण है कि चोलों के बारे में हम उनके पहले के राजाओं की अपेक्षा काफ़ी अधिक जानते हैं।
कलिंग के रास्ते बंगाल तक का अभियान राजेंद्र प्रथम के शासनकाल के सबसे उल्लेखनीय कृत्यों में से एक था। इसमें चोल सेनाओं ने गंगा नदी पार कर दो स्थानीय राजाओं को हराया। यह अभियान, जिसका नेतृत्व एक चोल सेनापति ने किया था, 1022 में चलाया गया और इसमें उसी रास्ते को उलटी दिशा से अपनाया गया जिसे महान विजेता समुद्रगुप्त ने अपनाया था। इस विजय की स्मृति में राजेंद्र प्रथम ने 'गंगईकोंडचोल' (गंगा का चोल विजेता) की उपाधि ग्रहण की। उसने कावेरी नदी के मुहाने के पास अपनी नई राजधानी बनाई और उसका नाम गंगईकोंडचोलपुरम (गंगा के चोल विजेता को नगर) रखा।
पुनर्जीवित हुए श्रीविजय साम्राज्य के खिलाफ़ नौसैनिक अभियान राजेंद्र प्रथम के काल का एक और उल्लेखनीय कारनामा था। श्रीविजय साम्राज्य, जिसे शैलेंद्र शासकों के अंतर्गत दसवीं सदी में पुनर्जीवन मिला, मलाया प्रायद्वीप, सुमात्रा, जावा और पड़ोसी द्वीपों में फैला हुआ था और चीन के साथ समुद्री व्यापार के मार्ग पर उसका नियंत्रण था। श्रीविजय साम्राज्य के शैलेंद्र राजवंश के शासक बौद्ध थे और चोलों से उनके सौहार्दपूर्ण संबंध थे। शैलेंद्र राजा ने महत्त्वपूर्ण बंदरगाही नगर नागपट्टम में एक बौद्ध मठ भी बनवाया था और उसके आग्रह पर राजेंद्र प्रथम ने मठ की देखभाल के लिए एक गाँव दान में दिया था। भारतीय व्यापारियों के राह की बाधाएँ दूर करने और चीन के साथ चोलों के व्यापार का प्रसार करने की चोलों की इच्छा प्रत्यक्ष रूप से दोनों के बीच संबंध विच्छेद का कारण थी। इन अभियानों के फलस्वरूप कदारम या केले तथा मलाया प्रायद्वीप और सुमात्रा के दूसरे बहुत-से स्थान जीत लिए गए। चोल नौसेना इस क्षेत्र में सबसे शक्तिशाली रही और कुछ समय तक बंगाल की खाड़ी 'चोलों की झील' बनी रही। पर शैलेंद्र शासकों के साथ हार्दिक संबंध जारी रहे, जैसा कि सुमात्रा से मिले एक टूटे-फूटे अभिलेख से ज्ञात होता है जिस पर 1088 की तिथि पड़ी हुई है।
चोल शासकों ने चीन में अनेक प्रतिनिधिमंडल भी भेजे। ये अंशत: कूटनीतिक और अंशत: व्यापारिक थे। चोल प्रतिनिधिमंडल 1016 और 1033 में चीन पहुँचे। 70 सौदागरों का एक चोल प्रतिनिधिमंडल 1077 में चीन गया और एक चीनी वृत्तांत के अनुसार, 'कॉँच के सामान, काफूर, ज़री के वस्त्रों, गेंडो, सीगों, हाथीदाँत आदि के रूप में दिए नज़राने के बदले उसे 'ताम्र-मुद्राओं की 81,800 मुद्राएँ' प्राप्त हुई. अर्थात चार लाख रुपयों से भी अधिक। व्यापार के लिए लाई गई सभी वस्तुओं के लिए चीनी लोग नजराना (tribute) शब्द का ही प्रयोग करते थे।
चोल राजा बराबर चालुक्यों से लड़ते रहे जिन्होंने राष्ट्रकूटों की जगह ले ली थी। ये हैं परवर्ती चालुक्य कहते हैं और उनकी राजधानी कल्याणी में थी। वेंगी (रायलसीमा), तुंगभद्र के दोआब उत्तर-पश्चिम कर्नाटक के गंग-शासित प्रदेश के नियंत्रण के लिए चोल और परवर्ती चालुक्य टकराते रहे। इस टकराव में किसी भी पक्ष को निर्णायक विजय नहीं मिली और अंतत: दोनों ही राज्य थककर चूर हो गए। यह भी प्रतीत होता है कि इस काल में युद्ध कठोर से कठोरतर होते जा रहे थे। चोल राजाओं ने कल्याणी समेत चालुक्य नगरों को रौंदा और लूटा तथा ब्राह्मणों और बच्चों समेत जनता का नरसंहार किया। उन्होंने पांड्य प्रदेश में भी ऐसी ही नीति अपनाई और जनता को भयभीत करने के लिए सैनिक छावनियाँ बनाई। उन्होंने श्रीलंका के राजाओं की प्राचीन राजधानी अनुराधापुर को नष्ट किया तथा वहाँ के राजा-रानी के साथ कठोर व्यवहार किया। ये चोल साम्राज्य के इतिहास के कलंक हैं। लेकिन चोल जब किसी प्रदेश को जीत लेते थे तो वहाँ प्रशासन की एक ठोस व्यवस्था स्थापित करने का प्रयत्न करते थे। साम्राज्य भर के गांवों में स्थानीय स्वशासन को बढ़ावा देना चोल प्रशासन की उल्लेखनीय विशेषताओं में से एक था।
बारहवीं सदी तक चोल साम्राज्य का फलना-फूलना जारी रहा, पर तेरहवीं सदी के आरंभिक भाग में उसका पतन हो गया। महाराष्ट्र क्षेत्र का परवर्ती चालुक्य साम्राज्य भी बारहवीं सदी में समाप्त हो चुका था। दक्षिण में चोलों की जगह पांड्यों और होयसलों ने ली, तथा परवर्ती चालुक्यों की जगह यादवों और काकतीयों ने। ये सभी राज्य कलाओं और वास्तुकला के संरक्षक थे। दुर्भाग्य से एक-दूसरे के खिलाफ़ बराबर लड़ते हुए, नगरों को रौंदते हुए और मंदिरों तक को न बख्शते हुए उन्होंने अपने आपको कमजोर कर लिया। अंतत: चौदहवीं सदी के आरंभ में दिल्ली के सुल्तानों ने उन्हें नष्ट कर दिया।
चोल शासन स्थानीय स्वशासन
राजा पहले की ही तरह चोल प्रशासन में भी सबसे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति था। समस्त सत्ता उसके हाथों में थी पर उसको सलाह देने के लिए मंत्रिपरिषद होती थी। प्रशासन से बेहतर संपर्क बनाए रखने के लिए राजा प्रायः देश का दौरा करता था। चोलों के पास एक विशाल सेना थी जिसमें हाथी, घुड़सवार और पैदल सैनिक थे। इन्हें सेना के तीन अंग कहा जाता था पैदल सेना आम तौर पर भालों और तलवारों से लैस होती थी। अधिकांश राजाओं के आपने अंगरक्षक होते थे जिनको अपना जीवन देकर भी राजा की रक्षा करने की शपथ दिलाई जाती थी वेनिस का यात्री मार्को पोलो, ने तेरहवीं सदी में केरल आया था. कहता है कि राजा की मृत्यु पर उसके सभी अंगरक्षक उसी की चिता पर जल मरते थे। हो सकता है कि इस कथन में अतिशयोक्ति हो। जैसा कि हमने कहा है, चोलों के पास एक शक्तिशाली नौसेना भी थी जिसका भलाबार और कोरोमंडल तट पर तथा कुछ समय तक बंगाल की पूरी खाड़ी पर वर्चस्व रहा।
चोल राज्य में केंद्रीय नियंत्रण वाले क्षेत्र थे तथा विभिन्न प्रकार के स्थानीय नियंत्रण वाले ढीले-ढाले प्रशासन वाले क्षेत्र भी थे। पर्वतवासी और वनवासी पूरे राज्य में बिखरे हुए थे। प्रशासन की बुनियादी इकाई नाडु था। इसमें अनेक गाँव होते थे जिनके बीच नातेदारी का घनिष्ठ संबंध और अन्य दूसरे घनिष्ठ संबंध भी होते थे। तालाबों, कुओं आदि सिंचाई के साधनों के कारण या पर्वतवासियों और वनवासियों को खेतिहर बनाकर जब नए क्षेत्रों को कृषि के अंतर्गत लाया जाता था तो नाडुओं की संख्या बढ़ जाती थी ब्राह्मणों और मंदिरों को दान में दी जाने वाली भूमियों का आकार बढ़ा और इन्होंने भी कृषि के प्रसार में सहायता पहुंचाई।
दक्षिण तमिल या चोल प्रदेश में नदियों को मिलाकर वलनाडु बनाए गए थे। चोल राज्य को चार मंडलों (प्रांतों) में बाँटा गया था। कभी-कभी राजकुमारों को प्रांतों का अधिपति बना दिया जाता था अधिकारियों को राजस्वमुक्त भूमियों के रूप में पारिश्रमिक दिए जाते थे।
चोल राजाओं ने राजमार्ग का एक जाल बिछा दिया जो व्यापार के लिए उपयोगी था और सेना की गति के लिए भी चोल साम्राज्य में व्यापार और वाणिज्य का विकास हुआ तथा कुछ ऐसे विशालकाय व्यापार संघों (गिल्डों) का उदय हुआ जो जावा और सुमात्रा से व्यापार करते थे।
चोलों ने सिंचाई पर भी ध्यान दिया। इसके लिए कावेरी और दूसरी नदियों का उपयोग किया गया। सिंचाई के लिए अनेक तालाब बनाए गए। भूराजस्व में सरकार का भाग तय करने के लिए कुछ चोल राजाओं ने भूमि का विस्तृत सर्वेक्षण भी कराया। पर सरकार का भाग ठीक-ठीक कितना था. यह हम नहीं जानते।
भू-कर के अलावा चोल राजाओं की आय व्यापार पर लगी चुंगी, पेशों पर लगे करों तथा पड़ोसी क्षेत्रों की लूट पर भी आधारित थी। चोल शासक समृद्ध थे तथा वे नगरों को बसाने और मंदिरों में शानदार स्मारक बनवाने का बोझ उठा सकते थे।
राष्ट्रकूट साम्राज्य के कुछ क्षेत्रों में हम गाँवों के स्थानीय स्वशासन की पहले ही चर्चा कर चुके हैं। चोलकालीन अभिलेखों के कारण हमें चोल साम्राज्य के ग्राम शासन के बारे में अधिक जानकारी है। हमें दो सभाओं का ज्ञान है जिनको उर तथा सभा (या महासभा) कहा जाता था। उर गाँव की आम सभा थी। लेकिन हमें महासभा के कामकाज का अधिक ज्ञान है। यह ब्राह्मणों के गाँवों में, जिनको अग्रहार कहा जाता था. वयस्क पुरुषों की सभा होती थी। ये गाँव ब्राह्मणों से आबाद थे तथा इनमें अधिकांश भूमि राजस्वमुक्त होती थी। इन गाँवों को बहुत अधिक स्वायत्तता प्राप्त थी। गाँवों के मामले एक कार्यकारी समिति सँभालती थी जिसमें संपत्तिशाली शिक्षित व्यक्ति या तो पर्चियाँ डालकर या बारी-बारी चुने जाते थे हर तीन साल पर इन सदस्यों को पदमुक्त होना पड़ता था।
भूराजस्व के आकलन और संग्रह, कानून-व्यवस्था की रक्षा, न्याय आदि में सहायता के लिए दूसरी समितियाँ भी होती थीं। महत्त्वपूर्ण समितियों में एक थी तालाब समिति जो खेतों के लिए पानी के बँटवारे पर निगाह रखती थी। महासभा नई मशीनों को आबाद कर सकती थी तथा उन पर संपत्ति के अधिकार का प्रयोग कर सकती थी। वह गाँव के लिए ऋण भी ले सकती थी और कर भी लगा सकती थी।
इन चोल गाँवों में प्रचलित स्वशासन एक बहुत सुंदर व्यवस्था थी। यह व्यवस्था दूसरे गाँवों में भी कमोबेश सफल रही। लेकिन उनकी स्वायत्तता को सामंतवाद के विकास ने सीमित कर दिया। राजस्व के आकलन और संग्रह के लिए अधिकारी नियुक्त करके शासकों ने नाडुओं की स्वतंत्रता को कम करने का प्रयत्न किया।
चोल शासन घरेलू और विदेशी व्यापार में वृद्धि के साथ बढ़ते नगरीकरण का काल था। नागपट्टनम चीन, श्रीलंका, दक्षिण-पूर्व एशिया के नाविकों और अरबों के लिए व्यापार का एक प्रमुख बंदरगाह था दस्तकारी और गैर-खेतिहर मालों का व्यापार भी बढ़ा। इसमें मंदिरों की भी सक्रिय भूमिका रही।
सांस्कृतिक जीवन
चोल शासन में भक्ति आंदोलन का और भी विकास हुआ। इस आंदोलन का मंदिरों से गहरा संबंध था। चोल साम्राज्य के विस्तार और संसाधनों के बल पर चोल राजाओं ने विशाल मंदिर बनवाए, जैसे तंजावुर, गंगईकोंडचोलपुरम, काँची आदि। इन राजाओं के विशाल परिवार होते थे और विशाल महल भी जिनमें भोजन-कक्ष, लंबे-चौड़े बाग और जीने आदि होते थे। उदाहरण के लिए. हमें उनके सरदारों के सातमंजिला और पांच मंजिला मकानों की बात सुनने को मिलती है।
दुर्भाग्य से उस काल के महलों में एक भी नहीं बचा। चोल राजधानी गंगईकोंडचोलपुरम आज तंजावुर के पास बस एक छोटा-सा गाँव है। मगर राजाओं और मंत्रियों के शानदार महलों तथा धनी सौदागरों के रहने के उतने ही शानदार मकानों के वृत्तांत उस काल के साहित्य में मिलते हैं। दक्षिण में मंदिर-निर्माण की कला चोल राज्य में ही चरम पर पहुँची।
इस काल में वास्तुकला की जो शैली प्रचलित हुई उसे द्रविड़ कहा जाता है, क्योंकि यह लगभग दक्षिण भारत तक ही सीमित है। इस शैली की प्रमुख विशेषता गर्भगृह के ऊपर मंजिल-पर-मंजिल बनाया जाना है। मंजिलों की संख्या पाँच से सात तक होती थी और उनकी एक खास शैली थी जिसे विमान कहते हैं। मंडप नाम का खंभोंवाला कक्ष, जिसमें बहुत अधिक नक्काशीदार खंभे होते थे और जिसकी छत सपाट होती थी, आम तौर पर गर्भगृह के सामने होता था वह सभा-भवन का काम करता था तथा दूसरे बहुत-से कार्यों के लिए भी प्रयुक्त होता था उदाहरण के लिए, अनुष्ठान के समय नृत्य के लिए इनका उपयोग होता था। ये नृत्य देवताओं की सेवा में समर्पित स्त्रियाँ अर्थात देवदासियाँ करती थीं। कभी-कभी गर्भगृह के चारों ओर एक गलियारा भी बनाया जाता था, ताकि भक्त उसकी परिक्रमा कर सकें। इस गलियारे में अनेक दूसरे देवताओं की मूर्तियाँ रखी हुई होती थीं। पूरा ढाँचा एक खुले दालान के बीच होता था जिसके चारों ओर ऊँची दीवारें होती थीं और इन दीवारों में ऊँचे भव्य द्वार होते थे जिनको गोपुरम कहते हैं।
कालांतर में विमानों की ऊँचाई और बढ़ी, दालानों की संख्या भी बढ़कर दो या तीन हो गई तथा गोपुरम अधिकाधिक सुसज्जित होते गए। इस तरह मंदिर लघु नगर या महल बन गए और उनमें पुरोहितों एवं दूसरे बहुत-से लोगों के रहने के लिए कमरों की व्यवस्था भी होती थी। आम तौर पर मंदिरों को अपने खर्च के लिए राजस्वमुक्त भूमि दान में मिल जाती थी। उन्हें धनी सौदागरों से भी भारी-भारी दान मिलते थे। कुछ मंदिर तो इतने समृद्ध हो गए कि वे व्यापार करने, ऋण ब्याज पर देने और व्यापारिक उद्यमों में भाग लेने लगे। वे कृषि के सुधार, तालाबों और कुओं की खुदाई आदि पर तथा सिंचाई की नालियों की व्यवस्था पर भी धन खर्च करते थे।
मंदिर-निर्माण कला की द्रविड़ शैली का एक आरंभिक उदाहरण कांचीपुरम में आठवीं सदी का कैलाशनाथ मंदिर है। लेकिन इस शैली के सबसे सुंदर और सुसज्जित उदाहरणों में एक है तंजावुर का बृहदेश्वर मंदिर जिसे राजराज प्रथम ने बनवाया था। इसे राजेश्वर मंदिर भी कहते हैं क्योंकि मंदिरों के दालानों में राजाओं और रानियों की मूर्तियाँ लगाना चोलों का कायदा था। गंगईकोंडचोलपुरम का मंदिर टूटी-फूटी हालत में है, पर वह चोल काल की मंदिर-निर्माण कला का एक और सुंदर उदाहरण है। दक्षिण भारत के अन्य स्थानों पर भी बड़ी संख्या में मंदिर बनवाए गए। लेकिन यह बात याद रखनी चाहिए कि इनमें से कुछ गतिविधियों के लिए धनराशियाँ चोल राजाओं द्वारा पड़ोसी क्षेत्रों की जनता को लूट कर प्राप्त की गईं थीं। चोलों के पतन के बाद कल्याणी के चालुक्यों ने और होयसलों ने मंदिर-निर्माण का काम जारी रखा। धारवाड़ ज़िला और होयसल राजधानी हालेबिड में मंदिर बड़ी संख्या में हैं। इनमें सबसे शानदार मंदिर होयसलेश्वर मंदिर है जिसे चालुक्य शैली कहा जाता है। यह उस शैली का सबसे अच्छा उदाहरण है। देवताओं और उनके स्त्री-पुरुष सेवकों (यक्षों और यक्षिणियों) की मूर्तियों के अलावा इन मंदिरों में सुंदर नक्काशी वाली पट्टिकाएँ हैं जो एक व्यस्त जीवन का परिदृश्य प्रस्तुत करती हैं. जैसे नृत्य, संगीत तथा युद्ध और प्रेम के दृश्य। इस तरह जीवन धर्म से गहराई से जुड़ा था। आम आदमी के लिए मंदिर मात्र पूजा स्थान ही नहीं, सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन का केंद्र भी था।
इस काल में दक्षिण भारत में मूर्तिकला का स्तर बहुत ऊपर उठा। इसका एक उदाहरण श्रवणबेलगोला में गोमतेश्वर की विशालकाय प्रतिमा है। मूर्तिकला का एक और पहलू छवि-निर्माण था जो शिव की नृत्य मुद्रा के रूप में, जिसे नटराज कहते हैं, अपने चरम पर जा पहुँचा। इस काल के नटराज की मूर्तियाँ, खासकर वे जो काँसे की बनी होती हैं. सर्वश्रेष्ठ मानी जाती हैं भारतीय और विदेशी संग्रहालयों में इसके अनेक सुंदर नमूने देखने को मिलते हैं।
इस काल में विभिन्न राजवंशों के राजाओं ने कला और साहित्य संरक्षण दिया। संस्कृत को उच्च संस्कृति की भाषा माना जाता था तथा अनेक राजा, विद्वान और दरबारी कवि उसमें रचनाएँ करते थे। फिर भी इस क्षेत्र की भाषाओं में साहित्य का विकास इस काल की एक उल्लेखनीय विशेषता थी। तमिल प्रदेश में छठी और नवीं सदियों के बीच नयनार और अलवार कहलाने वाले अनेक लोकप्रिय संत हुए जो क्रमशः शिव और विष्णु के उपासक थे।
बारहवीं सदी के आरंभिक भाग में इन संतों की रचनाओं को तिरूमुराई नाम से ग्यारह जिल्दों में संकलित किया गया। इसे पवित्र माना जाता है और पाँचवाँ वेद समझा जाता है। कंबन को ग्यारहवीं सदी के उत्तरार्ध और बारहवीं सदी के आरंभिक भाग का कवि माना जाता है। इस काल को तमिल साहित्य का स्वर्ण युग कहा गया है। कंबन कृत रामायण को तमिल साहित्य का एक क्लासिक माना जाता है। ऐसा समझा जाता है कि कंबन एक चोल राजा के दरबार में रहते थे। दूसरे बहुत-से लोगों ने भी रामायण और महाभारत से विषय ग्रहण किए और इस तरह वे इन महाकाव्यों को जनता के और पास ले आए।
तमिल के बाद कन्नड़ इस काल में साहित्य की भाषा बनी। राष्ट्रकूट, चालुक्य और होयसल शासक कन्नड़ और तेलगु दोनों को संरक्षण देते थे। राष्ट्रकूट राजा अमोघवर्ष ने कन्नड़ में काव्यशास्त्र पर एक पुस्तक लिखी थी। कन्नड़ के विकास में अनेक जैन विद्वानों का भी योगदान रहा। पंपा, पोन्ना और रन्ना कन्नड़ काव्य के तीन रत्न माने जाते हैं। हालाँकि वे जैन धर्म से प्रभावित थे, पर उन्होंने रामायण और महाभारत से लिए गए विषयों पर भी लिखा है। ननैया ने, जो एक चालुक्य राजा के दरबार में था, तेलुगू में महाभारत की रचना आरंभ की। उनके शुरू किए काम को तेरहवीं सदी में टिकन्ना ने पूरा किया।
तमिल रामायण की तरह तेलुगू महाभारत भी एक क्लासिक रचना है जिसने बाद के अनेक लेखकों को प्रेरित किया। अनेक लोक-विषय भी मिलते हैं जो संस्कृत पर आधारित नहीं हैं तथा जनता की भावनाओं और अनुभूतियों को प्रतिबिंबित करते हैं। उन्हें तेलुगू में 'देसी' अर्थात ग्राम्य कहा जाता है।
इस तरह हम देखते हैं कि आठवीं से बारहवीं सदी तक का काल दक्षिण भारत में क्षेत्रीय राज्यों के विकास और क्षेत्रीय एकीकरण का ही काल नहीं था, बल्कि यह सांस्कृतिक विकास तथा व्यापार, वाणिज्य और कृषि के विकास का भी काल था।
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