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हड़प्पा सभ्यता (सिंधु घाटी सभ्यता)। Harappa | Hadappa Sabhyata in Hindi


प्रागैतिहासिक काल में लोग पत्थर से बने औज़ारों और शस्त्रों का उपयोग करते थे। इसके बाद लोगों ने धातुओं का उपयोग प्रारंभ कर दिया था। तांबा ऐसी पहली धातु थी, जिसका उपयोग व्यक्ति ने औजार बनाने के लिए किया । धीरे-धीरे भारतीय उप–महाद्वीप में अनेक ऐसी सभ्यताओं का विकास हुआ, जो पत्थर और तांबे के औजारों के उपयोग पर आधारित थीं। वे इस प्रयोजन के लिए कांसे का उपयोग भी करती थीं, जो तांबे और रांगे (टिन) का मिश्रण था। इतिहास के इस चरण को ताम्र-पाषाण (चाल्कोलिथिक) युग के नाम से जाना जाता है। (चाल्को यानी तांबा और लिथिक यानी पत्थर) भारत में ताम्र-पाषाण काल का सर्वाधिक उदीयमान अध्याय है, हड़प्पा की सभ्यता, जिसे सिंधु घाटी की सभ्यता भी कहते हैं।
हडप्पा की सभ्यता की खोज 1920-22 में की गई थी, जब इसके दो बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थलों पर खुदाई की गई थी। ये स्थान थे, रावी नदी के किनारे बसा हड़प्पा और सिंधु नदी के किनारे बसा मोहनजोदडो। पहले स्थान की खुदाई की गई थी डी.आर. साहनी (दयाराम साहनी) द्वारा और दूसरे की आर.डी. बनर्जी द्वारा। पुरातात्विक खोजों के आधार पर हड़प्पा की सभ्यता को 2600 ईसा पूर्व-1900 ईसा पूर्व के कालखंड के बीच माना गया है और ये विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक है। कई बार इसे 'सिंधु घाटी सभ्यता' भी कहा जाता है, क्योंकि प्रारंभ में इसकी जितनी भी बस्ति की खोज हुई, वे सभी सिंधु नदी या इसकी सहयोगी नदियों के पास या इसके आसपास के मैदानों में स्थित थीं। परन्तु आजकल इसे हड़प्पा सभ्यता कहा जाता है, क्योंकि हड़प्पा ही वह पहला स्थान था, जिससे इस सभ्यता का अस्तित्व प्रकाश में आया। इसके अतिरिक्त, हाल ही के पुरातात्विक अन्वेषणों से ये संकेत मिलता है कि इस सभ्यता का विस्तार सिंधु नदी के पूरे के सुदूर विस्तार तक फैला हुआ था। इसीलिए, बेहतर है कि इस सभ्यता को हम हड़प्पा सभ्यता के नाम से ही पुकारें। ये भारत की प्रथम नागरिक सभ्यता है और विश्व की अन्य प्राचीन सभ्यताओं, जैसे मैसोपोटामिया और मिस्र की समकालीन है। हड़प्पाकालीन लोगों के जीवन और सभ्यता के संबंध में हमारी जानकारी सिर्फ पुरातात्विक खुदाइयों पर ही आधारित है, क्योंकि उस काल की लिपि को अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है। हड़प्पा सभ्यता का उद्भव अचानक नहीं हुआ। इसका विकास धीरे-धीरे नवपाषाण युग की ग्रामीण सभ्यता से हुआ। ऐसा विश्वास किया जाता है कि सिंधु नदी के उपजाऊ मैदानी क्षेत्र से अधिकतम उपज लेने के लिए बेहतर तकनीकों के उपयोग के परिणामस्वरुप कृषि उत्पादन में वृद्धि हुई होगी। इसके फलस्वरुप इतनी बढ़ती फसल पैदा हुई होगी, जिससे गैर-कृषि आबादी के लोगों और प्रशासकीय वर्ग इत्यादि के लिए, खाद्यों और उनके जीवन-यापन के लिए उत्पादन उपलब्ध हुआ होगा। इससे दूर-दराज के प्रदेशों के साथ विनिमय और व्यापारिक संबंध बढ़ाने में भी सहायता मिली होगी। इससे हड़प्पा के लोगों में समृद्धि आई होगी और वे शहर बसाने के योग्य बने होंगे।
2000 ईसा पूर्व के आसपास इस उपमहाद्वीप के विभिन्न भागों में अनेक प्रादेशिक सभ्यताओं का विकास हुआ और ये भी पत्थर और तांबे के औजारों के उपयोग पर ही आधारित थीं। ये ताम्र पाषाण सभ्यताएं, जो हड़प्पा सभ्यता के क्षेत्र से बाहर थीं, अधिक समृद्ध और फली-फूली नहीं थी। बुनियादी तौर पर ये सभ्यताएं ग्रामीण प्रकृति की थीं। कालक्रमानुसार इन सभ्यताओं के उद्भव और विकास का काल 2000 ई.पू.-700 ई.पू. के आसपास माना गया है। ये सभ्यताएं पश्चिमी और मध्य भारत में मिलीं और इन्हें गैर-हड़प्पा ताम्र पाषाण (चाल्कोलिथिक) सभ्यता के रुप में उल्लिखित किया गया है।
उद्भव और विस्तार
पुरातात्विक अवशेषों से पता चलता है कि हड़प्पा सभ्यता से पहले लोग छोटे-छोटे गांवों में रहते थे। समय बीतने के साथ-साथ छोटे कस्बे बने और इन कस्बों से हड़प्पा काल के दौरान पूर्ण विकसित शहरों का विकास हुआ। वास्तव में हड़प्पा काल की संपूर्ण अवधि को तीन चरणों में बांटा गया है-
  1. प्रारंभिक हड़प्पा काल (3500 ई.पू. से 2600 ई.पू.)। इस काल की विशेषता का उल्लेख मिलता है, इसके मिट्टी से बने ढांचों, प्रारंभिक व्यापार, कला और शिल्पों इत्यादि में,
  2. परिपक्व हड़प्पा काल (2600 ई.पू.-1900 ई.पू.) यह वह चरण है, जब हमें भठे में पकी ईंटों से बने ढांचों वाले भली-भांति विकसित शहर, स्वदेशी और विदेशी व्यापार और विविध प्रकार के शिल्प देखने को मिले और
  3. उत्तर हड़प्पा काल (1900 ई.पू.-1400 ई.पू.)- यह पतन का काल था, जिसके दौरान शहर उजड़ने लगे थे और व्यापार समाप्त हो गया था, जिससे धीरे-धीरे शहरीकरण की मुख्य विशिष्टताएं लुप्त होती गईं।
आइए सर्वप्रथम हम, हड़प्पा सभ्यता के भौगोलिक विस्तार का जायजा लेते हैं-
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पुरातात्विक खुदाइयों से पता चला है कि यह सभ्यता विस्तृत क्षेत्र में फैली हुई थी, जिसमें न सिर्फ भारत के आधुनिक राज्य, जैसे-राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, गुजरात, महाराष्ट्र, पश्चिमी उत्तर प्रदेश सम्मिलित थे, बल्कि पाकिस्तान और अफगानिस्तान के कुछ भाग भी शामिल थे।
इस सभ्यता के कुछ मुख्य स्थान हैं – जम्मू और कश्मीर में मांडा; अफगानिस्तान में शॉरतुलई; पश्चिमी पंजाब (पाकिस्तान) में हड़प्पा; सिंध में मोहनजोदड़ो और चन्हुदड़ो; राजस्थान में कालीबंगन; गुजरात में लोथल और धौलावीरा; हरियाणा में बनवाली और राखीगढ़ी; महाराष्ट्र में दाइमाबाद, जबकि मकरान तट (पाकिस्तान-ईरान की सीमा के पास) पर स्थित सुतकागेन्दारे हड़प्पा सभ्यता सुदूर पश्चिमी छोर और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आलमगीर इसकी सुदूर पूर्वी सीमा है।
आबादियों के स्थान के संकेत मिलते हैं कि हड़प्पा कालीबंगन (घग्गर-हाकरा नदी के किनारे पर, जिसे आम तौर पर लुप्त नदी सरस्वती के साथ जोड़ा जाता है), मोहनजोदड़ो की धुरी, इस सभ्यता का प्रमुख स्थल था और अधिकांश आबादी इसी क्षेत्र में स्थित थी। मिट्टी की किस्म, वातावरण और रहन-सहन की पद्धति के परिप्रेक्ष्य में इस क्षेत्र की कुछ सामान्य विशेषताएं थीं। यहां की भूमि समतल थी और सिंचाई और जल आपूर्ति के लिए मानसून और हिमालयी नदियों पर निर्भर थी। यहां की विशिष्ट भौगोलिक विशेषताएं और कृषि पशुपालन संबंधी अर्थव्यवस्था इस क्षेत्र के प्रमुख लक्षण थे।
हड़प्पा की शहरी आबादी के अतिरिक्त अनेक ऐसे स्थल थे, जहां पर पाषाण युग के शिकारी-संग्रहकर्ता या घुमन्तु चरवाहों वाले प्रागैतिहासिक काल के समुदायों के लोग भी साथ-साथ रहते थे। कुछ स्थल बंदरगाहों या व्यापारिक स्थलों के रुप में काम में लाए जाते थे। ध्यान देने योग्य बात है कि शहरीकरण को निर्धारित करने के प्रमुख कारक व्यापार, कर प्रणाली और लिपि इत्यादि होते हैं। शहरी सभ्यता कहलाए जाने के लिए हड़प्पा सभ्यता इन सभी मानकों पर खरी उतरती है।
सिन्धु सभ्यता के महत्वपूर्ण उत्खनन स्थल एवं उनकी तटीय स्थिति
नदी/सागर तटखुदाई वर्षजगह का नाम
रावी नदी1921 ई.हड़प्पा (मांटगुमरी, पंजाब-पाकिस्तान)
सिन्धु नदी1922 ई.मोहनजोदड़ो (सिंध, पाकिस्तान)
 1929 ई.आमरी
सिन्धु नदी1931 ई.चन्हूदड़ो (सिंध, पाकिस्तान)
दाश्क नदी1927 ई.सुतकागेंडोर (बलूचिस्तान-पाकिस्तान)
हिन्डन नदी1952-55 ई.आलमगीरपुर (मेरठ-उत्तर प्रदेश)
सतलज नदी1950-55 ई.रोपड़ (पंजाब-सतलज तट)
मादर नदी1953 ई.रंगपुर (गुजरात-मादर नदी तट)
घग्घर नदी1953 ई.कालीबंगा (हनुमानगढ़-राजस्थान)
सिन्धु नदी1955-57 ई.कोटदीजी (सिंध-पाकिस्तान)
भोगवा नदी1955-63 ई.लोथल (अहमदाबाद-गुजरात)
 1956-57 ई.प्रभाषपाटन
 1963-64 ई.देसलपुर
 1972-75 ई.सुरकोटदा (ब्लूचिस्तान)
 1973 ई.बनवाली (हिसार-हरियाणा)
अरब सागर1979 ई.बालाकोट
  धौलावीरा (भारत में सबसे बड़ा हड़प्पाकालीन स्थल) (गुजरात)
 1990-91 ई.धौलावीरा (गुजरात)
महत्वपूर्ण प्रश्न उत्तर-
(1) सिंधु घाटी सभ्यता को हड़प्पा सभ्यता क्यों कहते हैं?
-सिंधु घाटी सभ्यता को हड़प्पा सभ्यता इसलिए कहते हैं, क्योंकि हड़प्पा वह पहला स्थान था, जहाँ पर इस सभ्यता के अवशेष सबसे पहले प्राप्त हुए थे?
2. हड़प्पा सभ्यता के विभिन्न चरण कौन-कौन से थे?
-1. प्रारंभिक हड़प्पा काल (3500 ई.पू.-2600 ई.पू.)
2. परिपक्व हड़प्पा काल (2600 ई.पू.-1900 ई.पू.)
3. उत्तर हड़प्पा काल (1900 ई.पू.-1400 ई.पू.)
3. हरियाणा और गुजरात के किन्हीं दो-दो प्रमुख हड़प्पाकालीन स्थलों के नाम लिखें?
-हरियाणा में बनवाली और राखीगढ़ी और गुजरात में लोथल और धौलावीरा
4. मोहनजोदडो की खोज किसने की?
-श्री आर. डी. बनर्जी
5. हड़प्पा किस नदी के किनारे पर स्थित है?
रावी
6. किसी नगरीय सभ्यता की प्रमुख विशेषताएँ क्या होती हैं?
-किसी नागरीय सभ्यता की प्रमुख विशिष्टताएं हैं। भली-भांति नियोजित शहर, विशिष्ट कलाएं और शिल्प, व्यापार, कर-नीति (टैक्सेशन) और लिपि इत्यादि।
अन्य महत्वपूर्ण स्थल
स्थल
1. मेहरगढ़
2. डेरा इस्माइल खान
3. राखीगढ़ी
                            4. माण्डा
5. रोजड़ी एवं प्रभासपाटन
नगर योजना
हड़प्पा सभ्यता की सबसे दिलचस्प विशिष्टता है, यहाँ की नगर योजना। इसमें अत्यधिक समरुपता देखने में आई है, यद्यपि कहीं-कहीं पर प्रादेशिक रुप से विविधताएं भी देखने में आती हैं। नगरों, गलियों, मकानों के ढांचों, ईंटों के आकार और नालियों इत्यादि की योजना में एकरुपता दिखाई देती है। लगभग सभी मुख्य स्थलों (हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, कालीबंगन और अन्य), को दो भागों में विभाजित किया गया है-पश्चिम की ओर एक ऊंचे चबूतरे पर बना किला और आबादी के पूर्वी भाग में बना निचला नगर। किले में बड़े-बड़े ढांचे बने हुए हैं जो शायद शासकीय या धार्मिक अनुष्ठानों के केन्द्रों के रुप में कार्य करते होंगे। रिहायशी भवन निचले नगर में बने हुए हैं। सड़कों का ढांचा इस प्रकार बना था कि ये एक-दूसरे मार्ग को समकोण पर काटते हुए निकलते थे।
इनसे शहर अनेक रिहायशी खंडों में बंट जाता है। मुख्य मार्ग को छोटी गलियों के साथ जोड़ा गया है। घरों के द्वार मुख्य मार्गों पर न होकर इन संकरी गलियों में खुलते थे। अधिकांश मकान भट्ठी में पकी ईंटों से बने थे। बड़े घरों में कई कमरे होते थे, जिसमें एक चौकोर आंगन भी होता था। इन घरों में अपने निजी कुएं, रसोई घर और स्नानागार के चबूतरे होते थे। घरों के आकार में अंतर से ये संकेत मिलता है कि धनी लोग बड़े घरों में रहते थे और एक कमरे के घरों या बैरकों में संभवतः समाज के निर्धन वर्ग के लोग रहते होंगे। हड़प्पा काल के लोगों की जल निकासी व्यवस्था बहुत व्यवस्थित और विकसित थी। हर घर में, नालियां थीं, जो गली की नाली से जाकर मिलती थीं। ये नालियां ईंटों से बने नरमोखों (मैनहोल्स) पर पत्थर की सिल्लियों से ढंकी होती थीं (जिन्हें सफाई के लिए हटाया जा सकता था) जिन्हें नियमित अंतराल पर गलियों के किनारे बनाया जाता था। इससे पता चलता है कि उन लोगों को सफाई विज्ञान की अच्छी जानकारी थी।
हड़प्पा के नगरों के कुछ मुख्य ढांचों के अवशेष
मोहनजोदड़ो का 'विशाल स्नानागार' एक बहुत ही प्रमुख स्थल है। इसके चारों ओर बरामदे बने हैं और उत्तरी और दक्षिणी, दोनों छोरों पर सीढ़ियां बनी हैं। स्नानागार के फर्श पर बिटूमन कोयले का पलस्तर किया गया था ताकि पानी का रिसाव न हो। साथ के एक कमरे से पानी की आपूर्ति होती थी और पानी की निकासी के लिए नाली थी।
स्नानागार के चारों ओर किनारे पर कुछ कमरे बने थे, जो शायद कपड़े बदलने के काम में आते होंगे। विद्वानों का मत है कि 'विशाल स्नानागार' धार्मिक क्रियाओं के लिए स्नान के लिए उपयोग में लाया जाता था। 'विशाल स्नानागार' के पश्चिम की ओर अन्न भंडारण के लिए एक धान्य कोठार स्थित थी। इसमें अन्न के भंडारण के लिए ईंटों से बने कई चौकोर खंड बने थे। हड़प्पा में भी एक कोठार मिला है। इसमें ईंटों से बने गोल चबूतरों की पंक्तिः हैं, जो शायद अन्न की कुटाई के लिए उपयोग में लाए जाते होंगे। इसकी जानकारी यह से प्राप्त गेहूं और जौ के भूसों के छिलकों से मिली है।
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लोथल में ईंटों से बना एक ढांचा मिला है, जिसे गोदीबाड़ा माना जाता है, जहां जहाजों के लंगर डाले जाते होंगे और ये माल के उतारने-चढ़ाने के काम में आता होगा। इससे ये संकेत मिलता है कि लोथल हड़प्पा के लोगों के लिए एक प्रमुख बंदरगाह और व्यापारिक केंद्र था।
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महत्वपूर्ण प्रश्न उत्तर-
1. हड़प्पा के नगरों में किले का निर्माण सामान्यतः किस दिशा में होता था?
-पश्चिमी
2. घरों को बनाने के लिए किस प्रकार की ईंटों का उपयोग होता था?
-भट्ठी में पकी ईंटें
3. 'विशाल स्नानागार' की खोज कहां पर हुई?
-मोहनजोदड़ो
4. लोथल में पाए गए प्रमुख भवन के ढांचे का नाम बताएं?
-गोदीबाड़ा
आर्थिक क्रिया-कलाप
1. कृषि
हड़प्पा सभ्यता की समृद्धि इसकी फली-फूली विकसित आर्थिक गतिविधियों पर आधारित थी, जैसे कृषि, कला, शिल्प और व्यापार। सिंधु नदी की उपजाऊ कछार भूमि ने यहां की अत्यधिक कृषि उपज में अपना भारी योगदान किया। इससे, हड़प्पा के लोगों को आन्तरिक और बाह्य दोनों स्तरों पर और उद्योगों को विकसित करने में भी सहायता मिली। कृषि के साथ-साथ पशु-पालन हड़प्पा की अर्थव्यवस्था का आधार था। हड़प्पा, मोहनजोदड़ो और लोथल जैसे स्थानों पर मिले कोठार, अन्न भंडारण के काम में लिए जाते थे। कृषि के कामों में प्रयुक्त औजारों के संबंध में हमारे पास कोई स्पष्ट साक्ष्य नहीं हैं। फिर भी कालीबांगन के एक खेत में हल चलाने या जुताई के कुछ चिह्न देखने में आए हैं। इससे संकेत मिलता है कि हल से खेती होती थी।
हरियाणा के हिसार जिले में बनवाली से मिट्टी से बने हल के मिलने की सूचना मिली है। कुओं से पानी निकालकर छोटे पैमाने पर और नदियों के पानी का नहरों के जरिये रुख मोड़कर खेतों की सिंचाई की जाती थी। मुख्य खाद्य फसलों में गेहूं, जौ, तिल, सरसों, मटर और राई इत्यादि शामिल थी। लोथल और रंगपुर में मिट्टी के बर्तनों में चावल की भूसी के बचे हुए कणों से वहां चावल की बड़ी खेती के साक्ष्य भी मिले हैं। कपास यहां की एक अन्य प्रमुख फसल थी। मोहनजोदड़ो में बुने हुए कपड़े का एक टुकड़ा प्राप्त हुआ है। अनाजों के अतिरिक्त मछली और पशुओं का मांस भी हड़प्पा के लोगों के आहार का हिस्सा था।
(2) उद्योग और शिल्प
हड़प्पा के लोग लोहे के अतिरिक्त लगभग सभी प्रकार की धातुओं से परिचित थे। वे सोने और चांदी की वस्तुएँ बनाते थे। सोने की वस्तुओं में मोती, बाजूबंद, सुइयां और अन्य गहने शामिल थे। परन्तु सोने से ज्यादा चांदी का उपयोग अधिक प्रचलन में था। बहुत बड़ी संख्या में चांदी के गहने, तश्तरियां इत्यादि प्राप्त हुई हैं। तांबे के औजार और अस्त्र-शस्त्र भी बड़ी संख्या में प्राप्त हुए हैं। सामान्य औजारों में कुल्हाड़ी, आरी, छैनी, चाकू, भाले की नोकें और तीरों के शीर्ष इत्यादि शामिल हैं। ध्यान देने की बात है कि हड़प्पा के लोगों द्वारा बनाए गए शस्त्र ज्यादातर सुरक्षात्मक प्रकृति के थे, क्योंकि तलवार जैसे शस्त्रों के मिलने के कोई प्रमाण नहीं मिले हैं। पत्थर के औजारों का भी आम तौर पर उपयोग होता था। तांबा, राजस्थान में खेतड़ी नामक स्थान से आता था। सोना हिमालयी नदियों की तराई और दक्षिण भारत से आता था, और चांदी मैसोपोटामिया से।
हमें कांसे के उपयोग के प्रमाण भी मिले हैं परन्तु बहुत ही सीमित स्तर पर इस संबंध में सबसे प्रसिद्ध नमूना है
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मोहनजोदड़ो से मिली कांसे से बनी नर्तकी का एक मूर्ति चित्र। ये नग्न नारी की एक मूर्ति है, जिसका एक हाथ नितम्ब पर है दूसरा नृत्य की मुद्रा में हवा में झूल रहा है। इसने बहुत सारी चूड़ियाँ पहन रखी हैं।
मनके बनाने की कला भी प्रमुख शिल्पकारी थी। बहुमूल्य पत्थरों और रत्नों से मोती बनाए जाते थे जैसे गोमेद (अगेट) और कॉर्नेलियन। मोती बनाने के लिए स्टिएटाइट का उपयोग होता था। चन्हुदड़ों और लोथल में मोती बनाने वालों की दुकानों के साक्ष्य मिले हैं। सोने और चांदी के मनके भी प्राप्त हुए हैं हाथी दांत की नक्काशी और मोति:, बाजूबंद और अन्य सजावटी सामनों पर मीनाकारी का काम भी चलन में था। अतः हम कह सकते हैं कि हड़प्पा के लोगों को अनेक कलाओं और शिल्पकारी के कामों में दक्षता प्राप्त थी।
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हड़प्पा काल की कला में एक प्रसिद्ध कलात्मक मूर्ति है मोहनजोदड़ो में मिली दाढ़ी वाले पुरुष की पत्थर से बनी एक मूर्ति। इसकी आंखें अधमुंदी हैं जैसे कि ये ध्यान मगन मुद्रा में है। इसके बाएँ कंधे पर कशीदाकारी किया गया दुशाला है। कुछ विद्वानों के मत में ये किसी प्रचारक का धड़ हो सकता है।
हड़प्पा के अनेक स्थलों से पुरुषों और महिलाओं की बहुत बड़ी संख्या में मिट्टी की मूर्तियां प्राप्त हुई हैं। महिलाओं की मूर्तियों की संख्या पुरुषों की मूर्तियों से अधिक है और ऐसा माना जाता है कि ये मातृहृदेवी की पूजा के संबंध में प्रत्यक्ष प्रमाण हैं।
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इसके अतिरिक्त पक्षियों, बंदरों, कुत्तों, भेड़ों, पालतू पशुओं, कूबड़ सहित और कूबड़-रहित बैलों के, अनेक प्रकार के मूर्तियों के नमूने प्राप्त हुए हैं। फिर भी, इस संबंध में सबसे उल्लेखनीय नमूने हैं-पकी मिट्टी की बनी गाड़ियां। मिट्टी के बर्तन बनाना भी हड़प्पा काल के लोगों का एक प्रमुख उद्योग था।
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ये मुख्य रुप से चाक-पहिये पर बनाए जाते थे और इन पर लाल रंग करने के बाद काले रंग से सजावट की जाती थी। ये विभिन्न आकारों और शक्लों में पाए गए हैं। चित्रकारी के नमूनों में अलग-अलग मोटाई की आड़ी लकीरें, पत्तों के नमूने, पाम और पीपल के पेड़, पक्षी, मछलियां और पशु इत्यादि के चित्र भी मिट्टी के बर्तनों पर बनाए गए हैं। हड़प्पा के लोग विभिन्न प्रकार की मुहरें बनाते थे। विभिन्न स्थानों से लगभग दो हजार से भी ज्यादा मुहरें प्राप्त हुई हैं। ये मुहरें आम तौर पर चौकोर शक्ल में थीं और सेलखड़ी से बनी थीं। ध्यान देने की बात है कि इन मुहरों पर अनेक पशुओं के चित्र थे परन्तु किसी भी मुहर पर घोड़े का चित्र नहीं था। इससे हमारे विद्वान ये तर्क करते रहे हैं कि हड़प्पा के लोग घोड़े से परिचित नहीं थे।
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यद्यपि ऐसे विद्वान भी हैं जो इस मत से सहमत नहीं हैं। विभिन्न प्रकार के पशुओं के अतिरिक्त, हड़प्पा की मुहरों पर हड़प्पाकाल की लिपि के कुछ चिन भी बने हैं परन्तु अभी तक इस लिपि को पढ़ा नहीं जा सका है।
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सबसे प्रसिद्ध मुहर वह है, जिस पर सींगों वाले एक पुरुष-देव का चित्र बनाया गया है। इसके तीन सिर हैं और ये पद्मासन की मुद्रा में बैठा है और ये चारों तरफ से हाथी, बाघ, गैंडा और एक भैंस जैसे जानवरों से घिरा है। अनेक विद्वान इसे भगवान पशुपति (पशुओं के देवता) का प्राचीन रुप मानते हैं परन्तु कुछ विद्वानों का इस विचार से मतभेद है।
(3) व्यापार
हड़प्पा के लोगों की नगरीय अर्थव्यवस्था की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता थी, उनका आंतरिक (देश के अंदर) और बाह्य (विदेशों में) दोनों तरह का व्यापारिक तंत्र जाल (नेटवर्क)। नगर की आबादी अपने खाद्यों और अन्य जरुरी चीजों के लिए अपने आसपास के गावों पर निर्भर थी। इसलिए गांवों-शहरों (ग्रामीण-नगरों) के परस्पर संबंध विकसित हुए। इसी प्रकार शहरों के शिल्पकारों को अपनी चीजें बेचने के लिए बाजारों की जरुरत थी। इससे शहरों के बीच परस्पर संपर्क स्थापित हुए। व्यापारियों ने विदेशी भूभागों, विशेष रुप से मैसोपोटामिया के साथ व्यापारिक संबंध स्थापित किए, जहां इन चीजों की अधिक मांग की। ध्यान देने की बात है कि शिल्पकारों को अपनी चीजें बनाने के लिए अनेक प्रकार की धातुओं और बहुमूल्य रत्नों की जरुरत पड़ती थी परन्तु स्थानीय रुप से उपलब्ध न होने के कारण इन चीजों को बाहर से मंगवाना पड़ता था। अपने उद्गम स्थल से दूर इस कच्चे माल की दूसरे स्थानों पर उपस्थिति से स्वाभाविक रुप में ये संकेत मिलता है कि ये वस्तुएं निश्चित तौर पर उन स्थानों पर वस्तुओं के विनियम की प्रक्रिया के माध्यम से ही वहां पहुंची होंगी। इस प्रकार राजस्थान में तांबे की बहुतायत होने के कारण हड़प्पा के लोग यहां खेतड़ी स्थित तांबे की खानों से मुख्यतः तांबा प्राप्त करते थे। कर्नाटक में कोलार स्थित सोने की खानों और हिमालयी नदियों के तराई के क्षेत्रों से संभवतः सोने की पूर्ति होती थी। चांदी का स्रोत शायद राजस्थान की ज्वार स्थित खानें रही होंगी। ऐसा विश्वास किया जाता है कि चांदी संभवतः हड़प्पा की वस्तुओं के विनियम के बदले में मैसोपोटामिया से भी प्राप्त की जाती थी। मोती बनाने के लिए प्रयुक्त किए जाने वाले बहुमूल्य रत्न नील वैदूर्य मणि का स्रोत अफगानिस्तान के उत्तर-पूर्व मे बदकशान खानों में स्थित था। फीरोज़ा और हरिताश्म शायद मध्य एशिया से लाए जाते थे। गोमेद, स्फटिक और कार्नेलियन की आपूर्ति पश्चिमी भारत से होती थी। सीप-शंख इत्यादि गुजरात और इसके आसपास के तटीय क्षेत्रों से आते होंगे। अच्छे किस्म की इमारती लकड़ी और अन्य वनोत्पाद शायद जम्मू जैसे उत्तरी क्षेत्रों से आते होंगे। हड़प्पा के लोग मैसोपोटामिया के साथ विदेश व्यापार भी करते थे। ये व्यापार मुख्य रुप से फारस की खाड़ी में स्थित ओमान और बहरीन के जरिये होता था। हड़पा के क्षेत्रों में मिले मोतिः, मुहरों, पांसे की गोटियों इत्यादि की मौजूदगी से इसकी पुष्टि होती है। यद्यपि उन क्षेत्रों की कलाकृति हड़प्पा के स्थलों में बहुत ही कम स्थानों पर मिली हैं, परन्तु पश्चिमी एशिया या पारसी मूल की एक मुहर लोथल में प्राप्त हुई है, जिससे इस संबंध की पष्टि होती है। सूसा, उर और मैसोपोटामिया के नगरों से लगभग दो दर्जन हड़प्पा की मुहरें मिली हैं। मुहरों के अतिरिक्त हड़प्पा मूल की जो अन्य कलाकृति वहां मिली हैं, उनमें मिट्टी के बर्तन, उत्कीर्ण कार्य किए गए कार्नेलियन के मोती और पांसे शामिल हैं।
मैसोपोटामिया से मिले शिलालेखों से हमें हड़प्पा के साथ मैसोपोटामिया के संपर्क के संबंध में हमें बहुमूल्य सूचना मिलती है। इन शिलालेखों से दिलमुन, मगन और मेलुलूह के साथ व्यापार के संकेत मिलते हैं। विद्वानों ने मेलुलूह के हड़प्पा के क्षेत्र के साथ, मगन के मकरान तट के साथ और दिलमुन के बहरीन के साथ संपर्कों की पहचान की है। इनसे संकेत मिलते हैं कि मैसोपोटामिया मेलुलूह से तांबा, कार्जेलियन, हाथी दांत, सीपियां, वैदूर्य मणि, मोती और आबनूस आयात करता था। मैसोपोटामिया से हड़प्पा को निर्यात की जाने वाली वस्तुओं में शामिल थे तैयार कपड़े, ऊन, इत्र, चमड़े की वस्तुएं और चांदी। चांदी के अतिरिक्त ये सभी वस्तुएं नाशवान हैं। यही मुख्य कारण रहा होगा, जिसकी वजह से हड़प्पा के स्थलों पर हमें इन वस्तुओं के अवशेष नहीं मिलते।
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महत्वपूर्ण प्रश्न उत्तर-
1. खेती-बाड़ी के अतिरिक्त हड़प्पा के लोगों में कौन-सी आर्थिक गतिविधियों का प्रचलन था?
-पशु चराना (पशु-पालन)
2. हड़प्पा के लोगों द्वारा उपयोग में लाई जाने वाली दो मुख्य खाद्य फसलों के नाम लिखें।.
-गेहूं, जौ, तिल, सरसों, मटर, जेजुबी इत्यादि
3. हड़प्पा काल के उन दो स्थानों के नाम लिखें, जहां से हमें उस दौरान खाद्य फसल के रुप में चावल के होने के प्रमाण मिले हैं?
-लोथल और रंगपुर
4. कांसे की नर्तकी की मूर्ति किस स्थान से मिली थी?
-मोहनजोदड़ो
5. हड़प्पा काल के दौरान प्रचलित किन्हीं दो शिल्पों के नाम लिखें?
-मनके-मोती बनाना, मिट्टी के बर्तन बनाना
6. हड़प्पा के लोगों के लिए तांबा प्राप्त करने का प्रमुख स्रोत कौन-सा स्थान था?
-राजस्थान में खेतड़ी की खदानें
सामाजिक विशिष्टताएं
ऐसा लगता है कि हड़प्पा के लोगों का समाज मातृ सत्तात्मक प्रकृति का था। इस मत का आधार है मातृ देवी की लोकप्रियता जैसा कि पंजाब और सिंध प्रदेशों में बड़ी संख्या में मिली पक्की मिट्टी की बनी नारी मूर्तियां से भी संकेत मिलता है। क्योंकि हड़प्पा की लिपि को अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है, इसलिए हमें इस संबंध में मिली सीमित सूचनाओं पर ही संतुष्ट रहना होगा।
हड़प्पा के समाज में विविध व्यवसायों से जुड़े लोग शामिल थे। इनमें पुजारी, योद्धा, किसान, व्यापारी और कारीगर (राजगीर, बुनकर, सुनार, कुम्हार इत्यादि) शामिल थे। हड़प्पा और लोथल जैसे स्थानों पर मिले मकानों के ढांचों से पता चलता है कि विभिन्न वर्गों के लोगों द्वारा आवास के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के भवनों का उपयोग किया जाता था। हड़प्पा के कोठार के पास बने कारीगरों के घरों से इस वर्ग के कारीगरों की उपस्थिति के संबंध में पुष्टि होती है। इसी प्रकार, लोथल में तांबे का काम करने वाले कारीगरों और मोती बनाने वाले कामगारों की कार्यशालाओं और उनके लिए आवासीय घरों के मिलने के भी प्रमाण मिले हैं। वास्तव में, हम ये कह सकते हैं कि जो लोग बड़े घरों में रहते थे, वे धनी वर्ग से थे और जो कारीगरों के क्वार्टरों जैसी कोठरियों (बैरकों) में रहते थे, वे मजदूर वर्ग से संबंधित थे।
उनकी वेशभूषा के ढंग के संबंध में हमारी सीमित जानकारी उस काल के दौरान मिली पक्की मिट्टी और पत्थर की बनी महिलाओं की मूर्तियों पर आधारित है। पुरुषों को अधिकतर जिस पहनावे में दर्शाया गया है, उसमें नीचे के आधे भाग में चारों ओर एक धोती-सी बंधी है, जिसका एक सिरा बाएं कंधे और दाएं बाजू के नीचे हैं। एक अन्य पोशाक है चोगे (ढीला कपड़ा) की तरह का परिधान, जिससे शरीर के निचले भाग को ढंका गया है। वे लोग सूती और ऊनी कपड़े उपयोग में लाते थे। मोहनजोदड़ो में बुनाई किया गया एक कपड़ा मिला है। अनेक स्थानों पर मिली तकलियों और सुइयों से ये साक्ष्य मिलता है कि उस समय कताई और बुनाई का प्रचलन था।
हड़प्पा के लोगों को सजने-संवरने का शौक था। विभिन्न स्थलों पर मिली पुरुषों और महिलाओं की मूर्तियों से बाल संवारने के प्रमाण मिलते हैं। पुरुष और महिलाएं अपने बाल अलग-अलग तरीके से संवारते थे। लोग आभूषण पहनने के भी शौकीन थे। इनमें मुख्य तौर पर स्त्री और पुरुष दोनों द्वारा उपयोग किए जाने वाले नेकलेस, बाजूबंद, कानों के बूंदे, मोती-मनकें, चूड़ियां इत्यादि शामिल थीं। ऐसा लगता है कि धनी लोग सोने, चांदी और बहुमूल्य रत्नों से बने गहने पहनते थे, जबकि निर्धन लोगों को पकी मिट्टी के गहनों से ही संतुष्ट होना पड़ता था।
महत्वपूर्ण प्रश्न उत्तर-
1. हड़प्पा के समाज को समाज समझा जाता था?
-मात सत्तामक
2. कारीगरों के मकान किस स्थान पर पाए गए थे?
-हड़प्पा
3. हड़प्पा के लोग किस सामग्री से बने कपड़े पहनते थे?
-सूत (कपास), ऊन
धार्मिक विश्वास और रीतियां
हड़प्पा के लोगों के धार्मिक विश्वासों और रीति-रिवाजों के संबंध में हमारी जानकारी, अधिकतर हमें उपलब्ध मृणमूर्तियों पर आधारित है। हड़प्पा के लोगों के धर्म को आम तौर पर जीवोपासक यानी पेड़ों व पत्थरों के उपासक के रुप में जाना गया है। हड़प्पा के विभिन्न स्थलों पर मिली पकी मिट्टी की असंख्य मृणमूर्तियों को मातृ देवी की उपासना के साथ जोड़कर देखा जाता है।
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इनमें से अधिकांश मूर्तियों में महिलाओं ने चौड़ी-सी करधनी, बाघ की खाल का कपड़ा और गले में हार पहन रखाहै। वे पंखे के आकार का शिरोवस्त्र पहने हुए हैं। कुछ मूर्तियों में महिला को गोद में एक शिशु लिए दिखाया गया है तो एक मूर्ति में एक महिला के गर्भ से एक पौधा उगता हुआ दर्शाया गया है। दूसरी मूर्ति शायद भू-देवी की प्रतीक है। बहुत से विद्वान मानते हैं कि हड़प्पा वासी लिंग (पुरुष यौनांग) और योनि (महिला यौनांग) के उपासक थे, परन्तु कुछ इस मत से असहमत हैं।
हड़प्पावासियों का पुरुष देवता में आस्था का साक्ष्य मिलता है। एक मुहर पर बनी एक आकृति से, जिसमें एक पुरुष के सिर पर भैंसे के सींग वाला मुकुट है, जो यौगिक मुद्रा में बैठा है और इसके आसपास कई पशु हैं। अनेक विद्वान इसे भगवान पशुपति (पशुओं के देवता) या 'आदि शिव' के रुप में देखते हैं। यद्यपि कुछ विद्वानों का इससे मतभेद है। एक अन्य मुहर में एक सींगों वाले देवता की आकृति है, जिसके बाल हवा में उड़ते हुए हैं और वह नग्न है और पीपल के पेड़ की शाखाओं के बीच खड़ा है, एक उपासक घुटनों के बल उसके समक्ष बैठा है। इससे पेड़ों की उपासना का पता चलता है। हड़प्पावासियों में पशुओं की उपासना के प्रचलन का भी प्रमाण मिलता है।
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ई.पू. के मध्य देखने में आया। आबादी के क्षेत्र भी सिकुड़ने लगे थे। उदाहरणतः, उत्तर काल की अवधि के दौरान हड़प्पा, जो मूल रुप से 85 हैक्टेयर के क्षेत्र में फैला था। इस काल में सिर्फ तीन हैक्टेयर की आबादी में सिकुड़ कर रह गया था। ऐसा लगता है कि यहां की आबादी किन्हीं दूसरे क्षेत्रों में स्थानांतरित हो गई थी। इसका संकेत मिलता है कालीबंगन और लोथल जैसे कुछ स्थानों से अग्नि की उपासना के भी कुछ साक्ष्य मिले हैं। कालीबंगन में ईंटों से बने अनेक चबूतरों की पंक्तियों और उन पर बने गड्ढ़ों में राख और पशुओं की हड्डियां भी मिली हैं। अनेक विद्वान इन्हें हवन कुंड मानते हैं। इससे यह भी प्रदर्शित होता है कि विभिन्न क्षेत्रों के हड़प्पावासियों में भिन्न-भिन्न धार्मिक रीति-रिवाज प्रचलित थे, क्योंकि हड़प्पा या मोहनजोदड़ो में किसी भी हवन कुंड के होने के प्रमाण नहीं मिले हैं। दफन के रीति-रिवाज और इनसे संबंधित धार्मिक कर्मकांड, किसी भी सभ्यता के धर्म का बहुत ही महत्त्वपूर्ण पहलू होते हैं। तथापि इस संदर्भ में हड़प्पा-कालीन स्थलों पर मिले मिश्र पिरामिडों जैसी इमारतों या मैसोपोटामिया स्थित दर में बनी शाही कब्रगाहों की तरह की कोई भी इमारत नहीं मिली है।
शवों को प्रायः उत्तर-दक्षिण दिशा में लिटाया जाता था, जिसमें सिर उत्तर की ओर और पांव दक्षिण की ओर होते थे। मृतको को, अलग-अलग संख्या में, उनके साथ मिट्टी के बर्तन रखकर दफनाया जाता था। कुछ कब्रों में शवों के साथ चूड़ियां, मोती, तांबे के दर्पण इत्यादि जैसी वस्तुएं रखकर दफनाया जाता था। इससे यह भी संकेत मिलता है कि हड़प्पावासी पुनर्जन्म में विश्वास रखते थे। लोथल में तीन ऐसी कब्रें मिली हैं, जिनमें महिला और पुरुष को इकट्ठे दफनाया गया है। कालीबंगन में प्रतीकात्मक रूप से दफनाने का एक साक्ष्य मिला है। यानी एक कब्र मिली है, जिसमें बर्तन रखे हैं, परन्तु कोई हड्डियां या कंकाल नहीं है। रीति-रिवाजों में पाई गई इन विविधताओं से पता चलता है कि हड़प्पा सभ्यता में संभवतः भिन्न-भिन्न प्रकार के धार्मिक विश्वास प्रचलन में थे।
धार्मिक प्रतीक के चिह्न
(1) ताबीजइनके द्वारा वे भौतिक व्याधियों अथवा प्रेतात्माओं से छुटकारा पाने का प्रयास करते थे।
(2) स्वास्तिकसूर्योपासना का प्रतीक। यह चिह्न संभवतः हडप्पा सभ्यता की देन है।
(3) योगी के रूप में बैठे पुरुष (शिव)शिव को आज भी योगीश्वर के नाम से संबोधित किया जाता है।
(4) श्रृंगमहाभारत में शिव को 'त्रि-शृंग' कहा गया है। (शृंग शिव से संबंधित)
(5) बैलसंहारकारी देवता शिव का वाहन था। यह सर्वाधिक धार्मिक महत्त्व का पशु था।
(6) बकरा
(7) भैंसाएक मुद्रा पर भैंसा व्यक्ति को उछाले हुए एवं एक अन्य मुद्रा पर व्यक्तियों के समूह पर आक्रमण करते हुए दिखाया गया है, जो किसी देवता की शत्रुओं पर विजय का प्रतीक है।
(8) नाग
(9) बैल, भेड़ एवं बकरी की हड्डियों के ढेर
(10) कांस्य नर्तकीमंदिर की कल्पना करने पर नृत्य भी धार्मिक महत्त्व का हो सकता है।
(11) शवों के साथ बर्तन एवं अन्य सामग्री
(12) शवों को उत्तर-दक्षिण दिशा में लिटाना
(13) दो शवों का एक साथ गाड़ा जानापुरुष की मृत्यु के बाद संभवतः स्त्री का सती होना।
(14) सिंधु घाटी की प्राचीन संस्कृति और आज के हिंदू धर्म के बीच जैव संबंध का प्रमाण पत्थर, पेड़ और पशु की पूजा से मिलता है।
महत्वपूर्ण प्रश्न उत्तर
1. प्रसिद्ध ‘पशुपति' मुद्रा किस स्थान से मिली है?
-मोहनजोदड़ो
2. हड़प्पाकालीन मुद्राओं पर प्रायः कौन-से वृक्ष की आकृति पाई गई है?
-पीपल
3. क्या अग्नि की उपासना का कोई साक्ष्य मिला है? यदि हाँ, तो यह कहाँ पर मिला है?
-हां, कालीबंगन और लोथल
4. संयुक्त कब्रें किस स्थान पर मिली हैं?
-लोथल 
लिपि
हड़प्पावासी शिक्षित थे। हड़प्पा की मुद्राओं पर अनेक प्रकार के चिन्ह या आकृतियां बनी हैं। हाल ही में किए गए अध्ययनों से यह संकेत मिले हैं कि हड़प्पा की लिपि में लगभग 400 चिन्ह हैं और इसे दाईं से बाईं ओर को लिखा जाता है। परन्तु अभी तक इस लिपि को पढ़ा नहीं जा सका है। ऐसा समझा जाता है कि ये अपने भावों को सीधे व्यक्त करने के लिए किसी भावचित्र यानी चिह्न या अक्षर का प्रयोग करते थे। हमें उनकी भाषा की कोई जानकारी नहीं है, परन्तु कुछ विद्वानों को विश्वास है कि वे 'ब्राहुई' भाषा बोलते थे, जिस बोली को पाकिस्तान के बलूची लोग आज भी बोलते हैं। तथापि अभी इस बारे में साफ तौर से कुछ नहीं कहा जा सकता।
हड़प्पा सभ्यता का पतन
हड़प्पा की सभ्यता 1900 ई.पू. तक फलती-फूलती रही। इस सभ्यता के बाद की अवधि को नगरी सभ्यता के बाद के चरण (उत्तरवर्ती हड़प्पावासी काल) के रूप में जाना जाता है। इस काल की विशेषता को इस प्रकार रेखांकित किया गया कि इसमें-
नगर-योजन, लेखन कला, माप-तोलों में एकरूपता, मिट्टी के बर्तनों में समानता इत्यादि जैसे मुख्य लक्षण धीरे-धीरे लुप्त होने लगे थे। यह अधोपतन 1900 ई.पू. -1400 ई.पू. के मध्य देखने में आया। आबादी क्षेत्र भी सिकुड़ने लगे थे। उदाहरणतः, उत्तर काल की अवधि के दौरान हड़प्पा, जो मूल रूप से 85 हैक्टेयर के क्षेत्र में फैला था। इस काल में सिर्फ तीन हैक्टेयर की आबादी में सिकुड़ कर रह गया था। ऐसा लगता है कि यहां की आबादी किन्हीं दूसरे क्षेत्रों में स्थानांतरित हो गई थी। इसका संकेत मिलता है उत्तर हड़प्पा काल में गुजरात, पूर्वी पंजाब, हरियाणा और अपर-दोआब क्षेत्रों के बाहरी क्षेत्रों में पाई गई नई बस्ति की अनेक स्थापनाएं।
आपको हैरानी होगी कि हड़प्पा सभ्यता का अंत कैसे हुआ। इस संबंध में विद्वानों के अनेक मत हैं।
  • कुछ विद्वानों का सुझाव है कि बाढ़ और भूकंप जैसी प्राकृतिक गैस आपदाओं ने इस सभ्यता को खत्म किया होगा। ऐसा विश्वास किया जाता है कि भूकंप के परिणामस्वरुप सिंधु नदी के निचले मैदानी, बाढ़ वाले क्षेत्रों का स्तर ऊंचा उठ गया होगा। इससे समुद्र की तरफ जाने को नदी के तल मार्ग में रुकावट आ गई होगी, जिससे मोहनजोदड़ो नगर डूब गया होगा। परन्तु इससे केवल मोहनजोदड़ो के खत्म होने का उल्लेख मिलता है न कि पूरी सभ्यता का।
  • कुछ विद्वानों के मतानुसार घग्गर-हाकरा नदी के मार्ग में परिवर्तन आने के कारण शुष्क बंजर धरती बढ़ती गई होगी, जिसकी वजह से पतन हुआ। इस सिद्धांत के अनुसार 2000 ई.पू. के आसपास बंजरता की परिस्थितिः बढ़ती गईं, इससे कृषि उत्पादन पर प्रभाव पड़ा होगा, जिससे इसका लोप हुआ।
  • पतन के कारणों में, आर्यों के आक्रमण के सिद्धांत का भी उल्लेख किया गया है, लेकिन आंकड़ों के आलोचनात्मक व गंभीर विश्लेषण के आधार पर अब इस मत को पूरी तरह नकार दिया गया है। इस प्रकार कोई भी एक अकेला ऐसा कारण नहीं है, जिससे संपूर्ण सभ्यता के विनाश का पता लग सके। ज्यादा से ज्यादा इनसे सिर्फ कुछ शिष्ट स्थलों या क्षेत्रों के नष्ट होने के संबंध में ही पता चल सकता है। अतः प्रत्येक सिद्धांत की आलोचना हुई। फिर भी, पुरातात्विक साक्ष्यों से संकेत मिलता है कि हड़प्पा सभ्यता का पतन अचानक नहीं हुआ, बल्कि धीरे-धीरे हुआ और अंत में ये सभ्यता अन्य सभ्यताओं में घुलती-मिलती चली गई।
महत्वपूर्ण प्रश्न उत्तर
1. हड़प्पा की लिपि में लगभग कितनी संख्या में चिन्ह हैं?
-400
2. कौन-सी प्राकतिक आपदाओं को हड़प्पा सभ्यता के पतन के लिए जिम्मेदार माना जाता है?
-बाढ़, भूकंप
3. हड़प्पा की लिपि कैसे लिखी जाती थी? (दाएं से बाएं या बाएं से दाएं)
-दाएं से बाएं
भारत के गैर-हड़प्पाई ताम्र-पाषाण समुदाय
प्रमुख ताम्रपाषाण (चाल्कोलिथिक) सभ्यताएं और उनके महत्त्वपूर्ण मुख्य स्थल और गैर-हड़प्पा ताम्रपाषाण सभ्यताओं का विस्तार पश्चिमी भारत और दक्कन में मिलता है। इनमें शामिल हैं राजस्थान के दक्षिण-पूर्व में स्थित बानस सभ्यता (2600 ई.पू.-1900 ई.पू.), उदयपुर के निकट अहर और गिलुंड जैसे मुख्य स्थलों सहित, मालवा सभ्यता (1700 ई.पू.-1400 ई.पू.) पश्चिमी मध्य प्रदेश में नवदातोली जैसे मुख्य स्थल सहित जोर्वे सभ्यता (1400 ई.पू.-700 ई.पू.), महाराष्ट्र में पुणे के पास स्थित मुख्य स्थलों इनामगांव और चन्दौली सहित पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार और बंगाल में भी ताम्रपाषाण सभ्यताओं (चाल्कोलिथिक कल्चर्स) के प्रमाण मिले हैं। ध्यान देने योग्य बात है कि यद्यपि गैर हड़प्पा (चाल्कोलिथिक सभ्यताएं) विभिन्न प्रदेशों में फलती-फूलती रहीं परन्तु उनमें कुछ पहलुओं में बुनियादी समानताएं थीं, जैसे उनके मिट्टी के घर, खेती और शिकार संबंधी गतिविधियां, चाक-पहिये पर बनाए गए मिट्टी के बर्तन इत्यादि। इन ताम्रपाषाण सभ्यताओं के मिट्टी के बर्तनों में शामिल थे गेरुए (ओकरे) रंग के बर्तन (ओसीपी), काले और लाल रंग के बर्तन (बी आर डब्ल्यू) और इसके साथ ही विभिन्न प्रकार की कटोरियां, बेसिन (चिल्मचियां), टोंटीदार जार जिनकी गर्दन संकरी थी और स्टैंड पर रखी तश्तरियां इत्यादि भी मिली हैं।
औजार, आवश्यक उपकरण और अन्य वस्तुए
ताम्रपाषाण सभ्यताओं की विशेषता है उनके द्वारा उपयोग किए जाने वाले तांबे और पत्थर से बने औजार पत्थर के औजार बनाने के लिए वे लोग, मकीक (कैलसेडनी) चकमक पत्थर (चर्ट) इत्यादि का उपयोग करते थे। उपयोग किए जाने वाले मुख्य औजार थे गंडासा (फरसा), चाकू, हंसिया, त्रिकोण और सबंल इत्यादि। खेती में पत्ती की तरह के खुरपी (ब्लेड) जैसे औजार प्रयुक्त होते थे। तांबे से बनी चीजों में चपटी कुल्हाड़ियां, तीरों की नोकें, भालों, नेज़ों के सिरे, छेनियां, मछली के कांटे, तलवारें, फरसे, चूड़ियां, अंगूठियां, मनके इत्यादि उपयोग में लाए जाते थे। कार्नेलियन, सूर्यकांत मणि (जैस्पर) स्फटिक, गोमेद, सीपियों इत्यादि से बने मनके खुदाइयों के दौरान बहुत से स्थलों पर मिलते हैं। इस संदर्भ में दइिमाबाद संग्रहालय से प्राप्त हुई वस्तुएं बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं। इन खोजों में हैं कांसे से बना गैंडा, हाथी, दो पहियों वाली गाड़ी जिस पर एक सवार भी है और एक भैंस। ये बहुत बड़े आकार में हैं और इनका वजन साठ किलोग्राम से भी अधिक है। कायथा (चम्बल घाटी) से भी, पैनी तराशी गई धारों वाली तांबे से बनी वस्तुएं प्राप्त हुई हैं। इनसे उस कालावधि के शिल्पकारों की कुशलता के संबंध में पता चलता है।
जीवन यापन से संबंधित अर्थव्यवस्था
इन बस्ति के लोग कृषि और पशुपालन पर जीवन यापन करते थे। तथापि उन लोगों में शिकार और मछली पकड़ने का भी प्रचलन था। इस अवधि की मुख्य फसलों में चावल, जौ, दालें, गेहूं, ज्वार, सफेद चने, मटर, हरे चने इत्यादि शामिल थे। ध्यान देने की बात है कि इस सभ्यता के प्रमुख भागों का उन्हीं क्षेत्रों में समूह रुप से विकास हुआ, जहां मुख्यतः काली मिट्टी बहुतायत में थी जो कपास उगाने के लिए उपयोगी हैं। इन स्थलों से मिले पशुओं के कंकालों से संकेत मिलते हैं कि इन सभ्यताओं में घरेलू पशुपालन और जंगली पशु भी मौजूद थे। घरों में पाले जाने वाले पशुओं में गाय, भैंस, भेड़ें, बकरी, कुत्ते, सूअर और घोड़े इत्यादि शामिल थे। वन्य प्राणियों में काले हिरण, ऐटिलोप, नीलगाय, बारहसिंगा, साम्भर-चीता, जंगली भैंसा और एक सींग वाली भैंस शामिल थे। मछली, जल में रहने वाली बतखें, मेंढक और चूहों की हड्डियां भी मिली हैं।
घर और निवास
ताम्रपाषाण सभ्यताओं की विशेषता है, उनकी ग्रामीण बस्तिः। लोग आयताकार और गोलाकार घरों में रहते थे जिनकी दीवारें कच्ची मिट्टी की और छतें घास-फूस की होती थीं। अधिकतर घर एक ही कमरे के घर थे, परन्तु कुछ घरों में दो या तीन कमरे थे। घरों के फर्श आग से पकी ईंटों या मिट्टी तथा नदियों की बजरी से मिश्रित करके बनाए जाते थे। जोर्वे सभ्यता (महाराष्ट्र) से संबद्ध 200 से भी अधिक स्थलों की खोज की गई है। इनामगांव की बस्ति (जोर्वे सभ्यता) से संकेत मिलते हैं कि इन बस्ति को बसाने में योजनाबद्ध रुपरेखा अपनाई गई थी।
महत्वपूर्ण प्रश्न उत्तर
1. मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र, प्रत्येक में से एक-एक ताम्रपाषाण स्थल का नाम लिखें?
-मध्यप्रदेश में नवदातोली और महाराष्ट्र में इनामगांव
2. ताम्रपाषाण युग में औजारों के निर्माण के लिए किस सामग्री का उपयोग होता था?
-पत्थर, तांबा
3. ताम्रपाषाण युग के लोग मकान बनाने के लिए किस सामग्री का उपयोग करते थे?
-मिट्टी
4. ताम्रपाषाण सभ्यताएं प्रकृति की थीं? (ग्रामीण/नगरी)
-ग्रामीण
5. किन्हीं दो गैर-हड़प्पा कालीन ताम्रपाषाण सभ्यताओं के नाम लिखें?
-मध्यप्रदेश में क्याथा सभ्यता और महाराष्ट्र में जोर्वे सभ्यता
आपने क्या सीखा
  • हड़प्पा सभ्यता भारतीय उपमहाद्वीप की पहली नगरीय सभ्यता थी।
  • पुरातात्विक अन्वेषणों से पता चलता है कि इस सभ्यता का क्रमिक विकास प्रारंभिक ग्रामीण समुदायों से हुआ।
  • हड़प्पा मोहनजोदड़ो, चन्हुदड़ो, कालीबंगन, लोथल, बनावली, राखीगढ़ी और धौलावीरा हड़प्पा सभ्यता के कुछ प्रमुख स्थल थे।
  • कुछ हड़प्पाकालीन केंद्रों पर भली-भांति विनियोजित नगर देखने में आए हैं। इन नगरों को इनकी विशेषताओं के अनुसार मुख्यतः दो भागों में विभाजित किया गया था। एक ऊंचे चबूतरे पर बना किला और दूसरा निचला नगर।
  • घर बनाने के लिए भट्ठी में पकाई गई ईंटों का उपयोग होता था।
  • नगरों में बहुत अच्छी जल-निकासी व्यवस्था थी। हड़प्पा के नगरों में पाए गए कुछ प्रमुख भवन थे– मोहनजोदड़ो का विशाल स्नानागार, हड़प्पा का धान्य कोठार और लोथल का गोदीबाड़ा। खेतीबाड़ी के साथ-साथ हड़प्पा के लोग पशु-चराने (चरवाहे) का काम भी करते थे।
  • ऐसे कुशल कारीगर भी थे, जो तांबे और अन्य धातुओं का काम करते थे, परन्तु सामान्यतः पत्थर के औजार ही उपयोग में लाए जाते थे।
  • वे मोती-मनके, पकी मिट्टी की मृणमूर्तियां, मिट्टी के बर्तन और विविध प्रकार की मुद्राएं बनाते थे।
  • हड़प्पावासी आंतरिक और बाह्य दोनों स्तर पर व्यापार करते थे।
  • फारस की खाड़ी में ओमान और बहरीन के जरिये उनके मैसोपेटामिया के साथ व्यापारिक संबंध थे।
  • व्यापारी, विभिन्न उपभोक्ता वस्तुओं के आयात और निर्यात का व्यापार करते थे।
  • हड़प्पा की सभ्यता को मातृ सत्तात्मक प्रकृति का माना जाता है।
  • वहां के लोग विभिन्न व्यवसाय करते थे, जैसे पुजारी, चिकित्सक, योद्धा, सूती और ऊनी कपड़े पहनते थे, परन्तु वे स्वयं को विविध प्रकार के आभूषणों से सजाने-संवारने के शौकीन थे।
  • हड़प्पावासी मातृ देवी, पशुपति (आदि शिव), वृक्षों और पशुओं की उपासना करते थे।
  • शवों को दफनाने के संबंध में भी उनमें अनेक प्रकार को रीति-रिवाज और धार्मिक कार्यकलाप प्रचलित थे।
  • हड़प्पावासी शिक्षित थे और उनकी लिपि में भावचित्र शामिल हैं। लेकिन उनकी लिपि को अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है। एक बार इस लिपि को पढ़ना संभव हुआ तो हम इस हड़प्पा सभ्यता के संबंध में और अधिक जानकारी प्राप्त कर सकेंगे।
  • विद्वानों के मतानुसार प्राकृतिक आपदाएं, बढ़ती शुष्कता (बंजरता) और आर्यों के आक्रमण संभवतः इस सभ्यता के पतन के विविध कारण हो सकते हैं।
  • पुरातात्विक साक्ष्यों से संकेत मिलते हैं कि इस सभ्यता का पतन अचानक नहीं हुआ, बल्कि धीरे-धीरे लोप हुआ।
  • पुरातात्विक स्रोतों से लक्षित होता है कि गैर-हड़प्पा ताम्रपाषाण सभ्यताओं की पहचान विविध प्रादेशिक भिन्नताओं से होती थी।
  • पत्थर और तांबे (चाल्कोलिथिक) के औजारों का उपयोग इन सभ्यताओं की एक सुस्पष्ट भिन्नता थी।
  • इनके स्थलों के विभाजन की पद्धति से ही इनकी बस्ति के श्रेणी वर्गीकरण का पता चलता है। कुछ बस्तिः बहुत विशाल आकार की थीं, जिनमें बहुत भव्य भवन थे, जिससे ये संकेत मिलता है कि ये प्रमुख केंद्र थे। हड़प्पा सभ्यता के दायरे से बाहर की ताम्रपाषाण सभ्यताओं में, हड़प्पा सभ्यता की नगरीय और समृद्धि जैसी विशिष्टताएं नहीं थीं।
  • ये गैर-शहरीकृत सभ्यताएं थीं, जिनमें इनकी कुछ निजी विशेषताएं थीं, जैसे-घर बनाने की पद्धति, मिट्टी के बर्तनों की किस्में, औजारों की किस्में, और धार्मिक रीति-रिवाजों का प्रचलन इत्यादि।
  • ये सभ्यताएं अभी भी कृषि और शिकार-संग्रहकर्ताओं के कामों के साथ-साथ पशुओं को चराने जैसी अर्थव्यवस्था पर ही जीवन यापन करती थीं।
FAQ
1. हड़प्पा सभ्यता की खोज कब हुई थी?
हडप्पा की सभ्यता की खोज 1920-22 में की गई थी, जब इसके दो बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थलों पर खुदाई की गई थी। ये स्थान थे, रावी नदी के किनारे बसा हड़प्पा और सिंधु नदी के किनारे बसा मोहनजोदडो। पहले स्थान की खुदाई की गई थी डी.आर. साहनी (दयाराम साहनी) द्वारा और दूसरे की आर.डी. बनर्जी द्वारा।
2. हड़प्पाकालीन मुद्राओं पर प्रायः कौन-से वृक्ष की आकृति पाई गई है?
पीपल
3. हड़प्पा के लोग किस सामग्री से बने कपड़े पहनते थे?
सूत (कपास), ऊन
4. 'विशाल स्नानागार' की खोज कहां पर हुई?
मोहनजोदड़ो
5. हड़प्पा के नगरों में किले का निर्माण सामान्यतः किस दिशा में होता था?
पश्चिमी

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